एज़ाज़ क़मर, एसोसिएट एडिटर-ICN
नई दिल्ली। पत्रकारिता मुझे विरासत मे मिली, मेरे छोटे नाना का छोटे से शहर मे छोटा सा एक अखबार था,उनके मंझले बेटे अखबार तैयार (मूल-प्रतिलिपी) किया करते थे,वह शिक्षक होने के कारण समय के अभाव मे मेरी माता जी से अक्सर सहायता लिया करते थे।
मै देखता था कि मेरी माता जी पुस्तक कला की तरह काग़जो को काट-काट कर चिपकाया तथा अजीब सा बनाया करती थी,जो बाद मे एक समाचार पत्र जैसा लगने लगता,फिर एक चरखे जैसी मशीन मे घुमाकर उसकी फोटो-कॉपिया बनती थी,जब अखबार की संख्या बढ़ गई तो प्रेस मे छपने लगा।उस समय बहुत छोटा सा बालक होने के कारण मुझे कुछ समझ नही आता था,लेकिन आज मै यह सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ,कि पहले ज़माने मे छोटे शहरो मे छोटे अखबार निकालना बहुत मुश्किल होता था,फिर भी हमारे पूर्वजो को अखबार प्रकाशित करने का इतना शौक और जुनून क्यो होता था?
शायद वह अपनी रचनाओ को भविष्य की पीढ़ियो के लिये सुरक्षित करवाना चाहते होगे?
या समाज को शिक्षित करना चाहते हो?
या क्रांति लाना चाहते होगे?
कारण कुछ भी रहा हो लेकिन उन्हे अपने स्वार्थ से ज़्यादा समाज और राष्ट्र की चिंता होती थी।1993 मे जब मै मुंबई विश्वविद्यालय मे पढ़ रहा था तब मुझे अपने मामा के प्रोत्साहन और प्रयास से मुम्बई मे उर्दू भाषा के सबसे बड़े दोपहर के अख़बार मे एक लेख लिखने का अवसर मिला,लेकिन इतने परिश्रम से लिखे गये लेख मे मेरा योगदान 48% से भी कम रह गया,क्योकि लेख को सुधार कर छपने योग्य बनाने के कारण 50℅ मेरी माता जी और लगभग 2% मेरे गुरुदेव अब्दुल्ला कमाल (जुम्मा मैगजीन के एडिटर) का लेखन मे योगदान हो गया था,फिर भी मैं आजतक उस लेख को देखकर बड़ा खुश होता हूं और उसे अपना सबसे महत्वपूर्ण लेख मानते हुये एक धरोहर की तरह सहेजकर रखता हूं, क्योकि उसमे मेरी माता जी और गुरु जी का योगदान है।
मै अक्सर यह सोचता हूं कि आज के युग मे अगर किसी लेखक की रचना के ऊपर इतना प्रश्नचिन्ह (Edit) लगा दिया जाये तो उसके अहंकार को कितनी ठेस लगेगी?
उसका गुस्सा शायद सातवे आसमान पर पहुंच जायेगा?
शायद वह जीवन-भर के लिये अपने मन मे दुश्मनी (वैर) पाल लेगा?
मेरे लेख कई समाचार पत्रो, पत्रिकाओ और वेब पोर्टल पर प्रकाशित होते रहते है,आज भी कई बार ऐसा अवसर आता है कि जब मुख्य संपादक (चीफ एडिटर) उस विषय पर लिखे मेरे शब्दो को एडिट कर देते है,जिस विषय मे मुझे उनसे कई गुना ज़्यादा जानकारी होती है।ना तो मै मुख्य संपादको से डरता हूँ और ना ही मै एक सूफी-संत हूँ,इसलिये अगर मै चाहूं तो चीफ-एडिटर से उस विषय-शीर्षक पर प्रश्न करके उन्हे आटे दाल का भाव बता सकता हूं अथवा मुख्य संपादक से अपने अपमान का बदला ले सकता हूँ,फिर भी मै उनसे पंगा नही लेता,क्योकि मुझे पासा पलटने डर सताता रहता है कि कही चीफ-एडिटर मुझसे यह ना पूछ ले,कि तुम्हारे पास कौन सी कंपनी की कार है?
तुम्हारा फ्लैट कितने बेडरूम का है?
तुम कौन सी सोसाइटी अथवा मुहल्ले मे रहते हो?
क्योकि आज के युग मे पत्रकार की योग्यता उसका ज्ञान और रचना नही है बल्कि कार और फ्लैट है,जिसके पास जितनी महंगी कार होगी वह उतना बड़ा पत्रकार समझा जायेगा,जिसके पास जितना बड़ा फ्लैट होगा वह उतना अनुभवी पत्रकार माना जायेगा।
हमारी दुविधा का कारण हमारी पीढ़ी के वरिष्ठ पत्रकार विशेषकर गुरुजन है,जो बड़े आदर्शवादी व्यक्तित्व हुआ करते थे,इनमे से अधिकतर वह त्यागी और बलिदानी महापुरूष होते थे जो समाज मे पत्रकारिता के माध्यम से क्रांति लाकर राष्ट्र सेवा करना चाहते थे।
एक बड़ा वर्ग वह होता था जो सिविल सर्विस की परीक्षा पास ना करने के बाद पत्रकारिता को चुनता था,एक समूह वह होता था जो वंचितो, शोषितो और पीड़ितो की आवाज़ बनना चाहता था,इसके अतिरिक्त भी पत्रकार बनने के पीछे कई महान उद्देश्य हुआ करते थे।
पब्लिसिटी पाने और पैसा कमाने के लिये पत्रकारिता को अपना पेशा (कैरियर) बनाने वाले 2% से भी कम होते थे,किंतु आज पासा पलट चुका है,क्योकि 98% लोग पब्लिसिटी और पैसा कमाने के लिये पत्रकारिता के क्षेत्र मे आते है अथवा धारा उल्टी बह रही है और हमे इस धारा के विपरीत तैरना पड़ रहा है।
पुराने ज़माने मे वरिष्ठ पत्रकार युवा पत्रकारो को अपनी औलाद की तरह मोहब्बत करते और उनकी लेखन क्षमता को सुधारने का प्रयास करते थे,मुझे आज भी अपने हर लेख के प्रकाशित होने के बाद गुरू समान वरिष्ठ पत्रकार अब्दुल रशीद साहब (मुंबई) की बहुत याद आती है, क्योकि मेरे अंदर तार्किक क्षमता विकसित करने के लिये उन्होने बहुत मेहनत करी थी।
एक बार हम तीन युवा पत्रकार शिष्य उनके पास बैठे थे तो उन्होने हमसे कहा कि “बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट मे लिखा है आदम ने चीकू खाया था, न्यू टेस्टामेंट मे लिखा है आदम ने सेब खाया था, कुरान मे लिखा है आदम ने गेहू खाया था और तीनो बाते सही है, मगर कैसे?
हम तीन लोग एक सप्ताह तक चिंतन-मंथन करते रहे,किंतु उत्तर नही मिला फिर रशीद साहब ने उसका उत्तर बताया तो हम लोग हैरान रह गये और यह घटना मेरे पत्रकारिता जीवन मे एक मील का पत्थर साबित हुई।
इस घटना का उल्लेख करने का कारण यह है कि हम हमेशा परिस्थितियो को दोषी ठहराते रहते है,क्या हम अपने वरिष्ठ पत्रकारो की तरह आज के युवा पत्रकारो के साथ अच्छा व्यवहार करते है?
क्या हम उनके अंदर तार्किक क्षमता विकसित करने के लिये व्यक्तिगत रूप से रूचि लेते और मेहनत करते है?
क्या हम अपने जूनियर पत्रकारो को अपने परिवार का सदस्य समझते है?
अगर हम अपने वरिष्ठ पत्रकारो की तरह व्यवहार नही कर सकते,तो हमे भी अपने जूनियर पत्रकारो से अच्छे व्यवहार की उम्मीद नही करना चाहिये।
दिनमान, दैनिक जागरण और नवभारत टाइम्स जैसे बड़े अखबारो के लिये कार्य करने वाले प्रसिद्ध पत्रकार स्वर्गीय श्री रामसेवक श्रीवास्तव जी के साथ कार्य करने का मुझे 2007 मे अवसर मिला,वह शाम को ऑफिस से लौटते वक्त मुझे अपनी कार मे लिफ्ट दे दिया करते थे जिससे मेरे घर पहुंचने का सफर एक घंटा कम हो जाता था,उनकी कोई संतान नही थी और वह मुझे अपने बेटे की तरह प्रेम करते थे,एक दिन चर्चा के दौरान मैने सिविल सर्विस का अंग ना बनने की अपनी पीड़ा बताई,तो उन्होने प्रोत्साहन देने के लिये मुझे समझाते हुये बताया कि “मै मध्यप्रदेश मे एक बड़ा सरकारी अफसर था लेकिन समाज को बदलने के लिये पत्रकारिता के क्षेत्र मे आया और तुम उसी ब्यूरोक्रेसी की दलदल मे शामिल ना होने के लिये रो रहे हो”।
श्रीवास्तव जी हमेशा यह कहते थे कि वह दुर्घटनावश पत्रकारिता मे आये और वह मैनेजमेंट द्वारा पत्रकारो के शोषण तथा पत्रकारिता के गिरते स्तर से भी बहुत दुखी थे, किंतु वह हमेशा युवाओ को पत्रकारिता मे जाने के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे,क्योकि प्रतिभाओ के अभाव मे उन्हे पत्रकारिता का स्तर और गिर जाने का अंदेशा था,मैने उन्ही के प्रोत्साहन से एक दशक के अंतराल के बाद दोबारा पत्रकारिता के क्षेत्र मे कदम रखा।
हमारे पिता तुल्य वरिष्ठ संपादक प्रदीप माथुर साहब कुछ दिन पहले हमसे नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे थे,कि आप लोग पत्रकारो को कोसते रहते है लेकिन उनकी परेशानियो के बारे मे कभी जनता को नही बताते कि वह कितनी विषम परिस्थितियो मे काम करते है?
माथुर साहब ने एक घटना बताई जिसमे अखबार का लाला (मालिक) पांच वरिष्ठ पत्रकारो (जो आज पत्रकारिता मे सम्मानित व्यक्तित्व है) से कुछ गै़रकानूनी काम करवाने के लिये दबाव डाल रहा था और वह पत्रकार अपनी सारी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करते हुये उसके चंगुल से बचने का प्रयास कर रहे थे,इस घटना पर एक उपन्यास की कहानी बन सकती है किंतु आई.सी.एन. इंटरनेशनल के प्रोटोकॉल की वजह से हम उसकी चर्चा इस लेख मे नही कर सकते है,किंतु जब मै माथुर साहब की आत्मकथा (ऑटो बायोग्राफी) लिखूंगा तो इसकी चर्चा ज़रूर करूंगा।
भ्रष्टाचार और मर्यादा लांगने का सबसे बड़ा कारण पत्रकारिता का बदलता हुआ व्यावसायिक स्वरूप है,पहले फील्ड जॉब, एडिटोरियल डेस्क, प्रमोशन एंड एडवर्टाइजमेंट, सेलिंग एंड डिस्ट्रीब्यूशन (लॉजिस्टिक) जैसे अलग-अलग विभाग होते थे और सभी विभाग के कर्मचारियो को वेतन मिलता था,फिर टी०वी० चैनलो की बाढ़ आने पर एडवरटाइजमेंट विभाग के लोग कमीशन पर रखे जाने लगे और आज रिपोर्टर भी कमीशन पर रखे जाते है।
डिजिटल मीडिया के आने के बाद पत्रकारिता का व्यवसाय ब्लैकमेलिंग का धंधा बन गया और पत्रकारो मे रंगदारी वसूलने की होड़ लग गई,साधारण भाषा मे इसका आशय यह है कि एक डिजिटल चैनल का पत्रकार व्यक्तियोे-संस्थानो के विरुद्ध रिपोर्ट बनाकर चैनल पर चलाता है,फिर रिपोर्ट रोकने के लिये उससे मोटी रकम वसूलता है, क्योकि आजकल चैनल की संख्या बहुत अधिक और विज्ञापन तथा आय के स्रोत सीमित हो गये है, इसलिये प्रतियोगिता के इस दौर मे रंगदारी वसूलने के अलावा दूसरे विकल्प बहुत कम बचे है।
यह भी कड़वा सच है कि पुराने ज़माने मे पत्रकारो का मालिक द्वारा बहुत शोषण होता था,क्योकि छोटी सी गलती पर उन्हे बहुत बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ती थी और नौकरी को लेकर हमेशा असुरक्षा की भावना बनी रहती है,फिर रिटायरमेंट के बाद पत्रकारो का जीवन यापन बहुत कठिन हो जाता था,इसलिये वह बुढ़ापे मे कोई सस्ती नौकरी खोजते या गांव मे जाकर खेती-बाड़ी किया करते थे,फिर भी इतनी विषम परिस्थितियो के बावजूद वह मर्यादा नही त्यागते थे,जबकि समाचार पत्र और पत्रिकाओ की सफलता का लाभ हमेशा लाला (अखबार के मालिक का उपनाम) को ही होता था।
एक पत्रकार से ज़्यादा कोई दूसरा व्यक्ति पत्रकार समुदाय का दर्द नही समझ सकता है, किंतु मजबूरी तथा लालच मे अंतर समझना कोई बड़ी पहेली नही है और आज जो पत्रकार वर्तमान मे पत्रकारिता का स्तर गिरा रहे है वह मजबूर नही है बल्कि लालच मे मर्यादा त्यागने का दुस्साहस कर रहे है,क्योकि उन्हेे लगता है अब कभी भारत मे किसी दूसरे दल या व्यक्ति की सरकार नही आयेगी।
पहले समय मे माफिया के प्रभाव के कारण पत्रकारो की जान का बहुत ज़ोख़िम होता था, किंतु आजकल उल्टे गुंडे-माफिया पत्रकारो की चाटुकारिता करते नज़र आते है,इसलिये अब पत्रकारो को खतरा सिर्फ सरकार से रहता है लेकिन सरकार भी ज़्यादा से ज़्यादा क्या कर सकती है?
या तो एन.डी.टी.वी. की तरह चैनल बंद कराने की कोशिश करेगी या फिर विनोद दुआ की तरह जेल-यात्रा करवायेगी,परंतु इसमे भी घाटे का सौदा नही है क्योकि आपको बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल जायेगे और विदेश मे नागरिकता भी मिल सकती है।इतनी अपॉर्चुनिटी (अवसर) होने के बावजूद भी अगर कोई पत्रकार सीमा पार करता है या सफलता दिलाने के नाम पर महिलाओ के शरीर को नोचने वाला लुटेरा टी०वी० एंकर भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े सूफी-संत हज़रत ख्वाजा साहब के विरुद्ध अपशब्द कहता है, तो उसका लक्ष्य नौकरी बचाना नही होता,बल्कि वर्तमान टी०वी० चैनल के सी०ई०ओ० का पद हासिल करना या नये टी०वी० चैनल का मालिक बनना या राज्यसभा मे पहुंचना ही होता है।
पुराने ज़माने मे जनता जानवरो की लड़ाई विशेषकर मुर्गो की लड़ाई देखकर अपना मनोरंजन किया करती थी,अब वह जनता एयर कंडीशन कमरे मे बैठकर टी०वी० डिबेट देखते हुये वही आनंद प्राप्त कर लेती है।
टी०वी० चैनल द्वारा पैनालिस्ट को पहले से ही विषय और उनकी भूमिका के बारे मे बता दिया जाता है,उन्हे सिर्फ अभिनय करना होता है और अगर वह अभिनय मे सफल नही हो रहे होते है,तो गाली-गलौज का दौर शुरू करवाया जाता है और कभी-कभी तो मार-पिटाई करके भी टी.आर.पी. बढ़ाई जाती है।
टी०वी० पैनालिस्ट विशेषकर मुस्लिम टी०वी० पैनालिस्ट अक्सर अपना दुख बयान करते फिरते है;कि “हमने गालियां भी खाई लेकिन उसके बदले मे हमे अतिरिक्त डिबेट नही मिली”,कुछ मुस्लिम पैनालिस्ट तो यह रोते रहते है कि “उनको पिटवा दिया गया और बदले मे नये चैनल पर डिबेट भी नही दिलवाई”,क्योकि सारे टी०वी० चैनलो के कोऑर्डिनेटर आपस मे एक-दूसरे के संपर्क होते है,इसलिये अगर एक कोऑर्डिनेटर से आपकी सेटिंग (दोस्ती) हो जाये तो दूसरे चैनल पर भी डिबेट मिलने की संभावना बनी रहती है।
आजकल टी०वी० के कलाकारो से ज़्यादा न्यूज़ एंकर अपने अभिनय के कारण भारत मे लोकप्रिय (प्रसिद्ध) होते जा रहे है,एक महाशय पहले हिंदी टी०वी० के सबसे बड़े राष्ट्रवादी अभिनेता (एंकर) हुआ करते थे,किंतु आज वह दूसरे पायदान (नंबर) पर खिसक गये है।क्योकि उनका राष्ट्रवाद सिर्फ अल्पसंख्यको को देखकर ही जागता है,इसलिये कभी वह अमिताभ बच्चन या अक्षय कुमार से प्रश्न नही करते है,कि आप टैक्स (कर) का पैसा बचाने के लिये विदेशी (एन०आर०आई०) क्यो बन जाते है?
आपके दिये टैक्स (कर) के पैसे से ही सेना के लिये हथियार खरीदे जाते है जिनका उपयोग करके सेना शत्रुओ से देश की रक्षा करती है,आपके दिये टैक्स (कर) के पैसे से ही सड़के बनती है जिस पर हमारी थलसेना के टैंक चलते है,आपके दिये टैक्स (कर) के पैसे से ही हमारी वायुसेना के हवाई जहाज़ खरीदे जाते है जिनसे हम शत्रुओ पर बम बरसाते है,आपके दिये टैक्स (कर) के पैसे से ही जलयान निर्मित होते है जिसका उपयोग करके जल सेना शत्रुओ के दांत खट्टे करती है,अफसोस मै भी किस व्यक्ति से उम्मीद कर रहा हूं?
क्योकि महाशय का डी०एन०ए० बता रहा है कि यह मनमोहन सरकार के समय मे हरियाणा के एक व्यापारी से रंगदारी वसूलने और उसे ब्लैकमेल करने के चक्कर मे हीरो से ज़ीरो बन चुके है।हमारी महान पुलिस अपराध होने से पहले ही अपराध का पता लगा लेती है और बड़े-बड़े खूंखार अपराधियो से राज़ उगलवाने के मामले मे दुनिया के किसी भी देश की पुलिस हमारी पुलिस से मुकाबला नही कर सकती है,किंतु हमारे हिंदी टी०वी० के सबसे बड़े राष्ट्रवादी अभिनेता (एंकर) तो पक्षी विज्ञानी डॉ० सलीम अली से भी बड़े विद्वान है और वह पक्षियो से भी राज़ उगलवाकर यह पूछ लेते है;
हे बाज़! तू पाकिस्तानी सेना मे कितने “सितारे वाली रैंक” का अधिकारी है?
कि हे कबूतर! तू पाकिस्तानी सेना की किस “रेजिमेंट” का अधिकारी है?
हे टिड्डीयो! तुम पाकिस्तानी वायु सेना की किस स्कवॉड्रन से हो?
यह महाशय हमेशा पंडित जवाहरलाल नेहरू को 1962 के भारत-चीन युद्ध के लिये कोसते रहते थे,लेकिन जब इतिहास ने इन्हे प्रश्न पूछने का अवसर दिया है,तब वह प्रधानमंत्री से यह पूछने का साहस नही कर पा रहे है,कि 2020 से पहले भारतीय सेना लद्दाख मे किस स्थान पर तैनात होती थी और आज उसकी स्थिति क्या है?
क्योकि इन महाशय का मानना है 1962 के भारत-चीन युद्ध से हुये नुकसान के लिये सिर्फ़ प्रधानमंत्री नेहरू जिम्मेदार थे और आज चीन द्वारा शहीद किये गये हमारे सैनिको के नुकसान के लिये प्रधानमंत्री मोदी के अलावा सारा देश ज़िम्मेदार है?हैरानी की बात तो यह है अब इनका “भारत भी यह नही पूछ रहा”,
कि हे 56 इंच की मर्दानी छाती वाले महाराजा!
कब घुस कर चीनी आक्रमणकारियो को मारोगे?
कब अक्साई-चिन चीन से वापस लोगे?
कब तिब्बत को चीनी कब्ज़े से स्वतंत्र करवाओगे?
क्या तिब्बत अखंड भारत का अंग नही है?
क्या मानसरोवर का कोई सांस्कृतिक महत्व नही है?
अरे भगवान! मै भूल ही गया कि अक्साई-चिन और तिब्बत की चर्चा करने से वोट नही मिलते है,ऊपर से इन जैसे सभी महान राष्ट्रवादी पत्रकारो का मत है कि चीनी अतिक्रमण (2020) का सवाल पूछने वाला व्यक्ति देशद्रोही और पाकिस्तानी एजेंट है।
एक वरिष्ठ अभिनेता (हिंदी न्यूज़ एंकर) भरत कर्मा जी (उपनाम) दक्षिणी दिल्ली मे लोटस टैम्पल के आस-पास रहते है,वह हमेशा धर्म, संस्कृति और संस्कारो का पाठ पढ़ाते रहते है,किंतु इनके चैनल की महिला कर्मचारी इन्हे देखकर अपनी इज़्ज़त बचाने के लिये ऐसे छुपती-फिरती है जैसे हिंदी फिल्मो मे नायिका खलनायक को देखकर भागती-फिरती है।
जब यह देशभक्त टी०वी० अभिनेता (हिंदी न्यूज़ एंकर) चीन को “छठी का दूध” याद करा रहे होते है और चीनी माल (सामान) के बहिष्कार के लिये देश की जनता को भड़का रहे होते है,तब टी०वी० स्क्रीन पर चीनी मोबाइल (ओप्पो, वीवो, एम.आई. आदि) के विज्ञापन चल रहे होते है क्योकि वह चीनी मोबाइल कंपनिया इनके समाचार कार्यक्रम की प्रायोजक (स्पॉन्सर) होती है,छद्म राष्ट्रवादियो और पाखंडी देशभक्तो को दोहरे मापदंड की परिभाषा समझाने की औकात किसकी है?
एक से बढ़कर एक नमूने है,एक बाबा राष्ट्रवाद की शिक्षा देते-देते साधु से व्यवसायी बन गये,फिर योगाचार्य से बिना डिग्री के चिकित्सक बन गये,अब यह कैंसर से लेकर कोरोना तक की चमत्कारी दवा बना रहे है,किंतु दिव्य औषधि से अपनी आँख को ठीक नही कर पा रहे है।
एक सामान्य भारतीय व्यापारी को सुबह-शाम अलग-अलग विभाग के अधिकारी आकर परेशान करते है और चैकिंग (जांच) करने तथा सर्टिफिकेट दिखाने की आड़ मे व्यापारी से लाखो रुपए की रिश्वत वसूलते है,किंतु बाबा के पास देशभक्ति का प्रमाण-पत्र है,इसलिये किस अधिकारी की इतनी औकात है कि वह इनसे कोई दूसरा सर्टिफिकेट (प्रमाण-पत्र) मांगे?
काश! कोई हमे भी देशभक्ति का सर्टिफिकेट दिलवा दे,ताकि सरकारी विभागो, पुलिस स्टेशनो और अदालतो के धक्के खाने से बच जाये,फिर हम संस्कारी और देशभक्त बनकर समाज मे खू़ब नफरत फैलाये और अपने विरोधियो को देशद्रोही तथा गद्दार बताकर उन्हे हाशिए पर पहुंचा दे।
संस्कृति और संस्कारो की रखवाली पार्टी के संस्कारी युवा सांसद तेजस्वी सूर्या यह कहते फूले नही समाते है कि अरब महिलाओ को ऑर्गेज़म नही होता है।मानसिक नपुंसकता के कारण हीन-भावना के शिकार इन लोगो को “दो सभ्यताओ के टकराव” की कोई चिंता नही है,क्योकि इन्हे सिर्फ अपना वोट बैंक नज़र आता है,किंतु मीडिया तो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है इसलिये मीडिया को लोकतंत्र, समाज, राष्ट्र और मानवता की चिंता होना चाहिये।
कामुक तेजस्वी सूर्या को अपनी जीवन-शैली मे सुधार करने के लिये मजबूर करने के बजाय भारतीय मीडिया उसे हीरो बनाने का प्रयास करता रहा है,जब मीडिया लोकतंत्र बचाने के बजाय इनका का बचाव करने लगे तो यह लक्षण लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिये बहुत खतरनाक होता है,किंतु यहां तो उलटी गंगा बह रही है इसलिये पेड-मीडिया नफरत फैलाकर गंगा-जमुनी तहज़ीब की हत्या करने और लोकतंत्र की कब्र खोदने मे लगा हुआ है।
पेड-मीडिया को यह बात समझ क्यो नही आती?
कि ऐतिहासिक घटनाओ विशेषकर शासकीय निर्णयो के आधार पर वर्तमान नीतियो का निर्माण नही किया जा सकता है, क्योकि हमारी जीवन शैली मे परिवर्तन हो चुका है और संस्कार रूपांतरित हो चुके है।
अगर इतिहास के आधार पर वर्तमान भारत सरकार नीतियो का निर्माण करती,तो धारा 377 के बाद भारतीय आचार दंड संहिता (आई.पी.सी.) की धारा 497 मे संशोधन नही करती (जिसके आधार पर पत्नी पर शक करने वाले पति को जेल की हवा खानी पड़ेगी),क्योकि मर्यादा पुरुषोत्तम का विश्वास जीतने के लिये माता-सीता ने अग्नि परीक्षा दी थी।
यह मानते है कि गुज़रा हुआ कल (समय) वापस नही आता और सच-झूठ तथा अच्छे-बुरे का फर्क़ भी इन राजनीतिज्ञो को पता है,फिर भी सब कुछ जानते-समझते हुये भी यह लोग मासूम (अनजान) बनकर षड्यंत्र करने मे लगे रहते है,क्योकि सत्ता पाने और सत्ता मे बने रहने के सुंदर सपने इन्हे नफरत फैलाने के लिये मजबूर करते है।
नफरत फैलाने वाले लोग इतिहास को खंगाल कर अपने बचाव के लिये मुद्दे खोजना चाहते है, किंतु समस्या यह है कि प्राचीन भारत मे इतिहास लिखने की परंपरा ही नही थी, सर्वप्रथम एक यूरोपियन “मेगस्थनीज” ने “इंडिका” नामक किताब लिखकर भारत के बारे मे जानकारी दी थी।
दुर्भाग्य से वह भारतीय व्यवस्था को नही समझ सका और उसने चार (4) वर्ण (वर्णाश्रम) के बजाय आठ (8) वर्ग लिख दिये।
कौटिल्य (चाणक्य) नाम का कोई व्यक्ति था या नही?
आज तक हम इसको प्रमाणित नही कर सके,इसलिये “कौटिल्य का अर्थशास्त्र” नामक पुस्तक को आज तक हम नही खोज सके,अकबर की पत्नी जोधा बाई के नाम से पिक्चरे बन गई लेकिन आज तक हम उसका असली हिंदू नाम नही खोज पाये।
इतनी विचित्र परिस्थितियो मे हम ऐतिहासिक आधार पर कैसे घृणा की राजनीति करेगे?
अगला चरण होता है कि इतिहास को मुद्दा बनाकर क्यो ना हिसाब-किताब चुकता किया जाये?
वैदिक साहित्य के अनुसार भगवान विष्णु जी के अवतार परशुराम जी ने सारे क्षत्रियो (सूर्यवंशी तथा चंद्रवंशी) का वध कर दिया था,फिर अग्नि से अग्निवंशीय क्षत्रिय पैदा हुये,इसलिये क्या सबसे पहले क्षत्रियो को परशुराम जी के वंशजो से अपना हिसाब-किताब नही चुकता करना चाहिये?
यहां विषय यह है कि सिर्फ “बाबर की संतानो से बदला” लिया जायेगा या समस्त ऐतिहासिक जानकारियो को आधार बनाकर सबका हिसाब-किताब चुकता किया जायेगा?
दलितो के शोषण का बहुत लंबा इतिहास है,क्या उन्हे सवर्णो से अपना हिसाब-किताब चुकता नही करना चाहिये?
वक्ष-कर बचाने के लिये नंगेली (Nangeli) को अपने वक्ष काटने पड़े थे,इसलिए क्या भारतीय महिलाओ को भी पुरुषो से हिसाब-किताब चुकता कर लेना चाहिये?
महात्मा गांधी ने कहा था कि आंख के बदले आंख फोड़ने से सारा विश्व अंधा हो जायेगा,लेकिन आज के राष्ट्रवादियो को कौन समझाये?
इसलिये मेरा विचार तो यह है ऐतिहासिक तथ्यो के आधार पर हम सब अपना-अपना हिसाब-किताब चुकता कर ले,क्योकि ना रहेगा और बांस ना बजेगी बांसुरी!
आम धारणा यह है कि पत्रकार सबका हिसाब-किताब मांगते है और सबको आपस मे लड़ाते है,किंतु ना तो यह अपना हिसाब-किताब देते है और ना ही आपस मे लड़ते है,क्यो ना हिसाब-किताब चुकता करने की शुरुआत हम पत्रकारो से की जाये?
क्यो हम पत्रकारो को आपस मे नही लड़ना चाहिये?
नेता तो भ्रष्टाचार और अय्याशी को लेकर बदनाम है,किंतु हम पत्रकार तो इन नेताओ के भी उस्ताद है,इसलिये जब नेता आपस मे लड़ते-झगड़ते रहते है,तो फिर क्यो हम पत्रकार आपस मे ना लड़े और एक-दूसरे की आलोचना ना करे?
खुद को भारत के सबसे बड़े प्रकाशन ग्रुप का अंग समझने वाले अंग़्रेजी समाचार पत्र ने 23 जून 2020 को अपने समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ की प्रथम पंक्ति मे समाचार प्रकाशित किया,कि मृतक चीनी सैनिको मे दो कमांडिंग ऑफिसर भी शामिल है और साथ मे उसने अपनी 18 जून की ख़बर की कटिंग भी लगा दी,ताकि यह प्रमाणित किया जाये कि वह सच्चा और सटीक समाचार देने वाला प्रकाशन है।
अब मन मे विचार पैदा होता है कि इस समाचार-पत्र से यह प्रश्न करे कि जब आप इतने सच्चे और सटीक समाचार देते हो और आप अंतर्यामी भी हो,तब आपने यह क्यो नही बताया कि चीन ने कितने भारतीय सैनिक गिरफ्तार किये है?
अगर आपने यह प्रश्न पूछने का दुस्साहस किया तो यह फासीवादी पेड-मीडिया आपको देशद्रोही बना देगी,अगर आप यह तर्क दे कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इसलिये ही माना जाता है,कि मीडिया सरकार की ग़लतियो को छुपाने और झूठ पर पर्दा डालने के बजाय उसे उजागर करके देश की जनता को सच बताएं,तो यह फासीवादी पेड-मीडिया आपको अर्बन-नक्सली बना देगी,अगर उपरोक्त लिखित प्रश्न करने वाला व्यक्ति मुसलमान हो तो फिर उसकी जड़े अल-कायदा या आई.एस.आई.एस से जुड़ी हुई मिल जायेगी।
अक्सर कुछ पत्रकार कुतर्क करते मिलेगे कि “ज्ञान देना शिक्षक का काम होता है पत्रकार का नही”,तब आप उनसे पूछिए;
हे पत्रकार महोदय!
जब सरकारी झूठ का पर्दाफाश करना मीडिया का काम नही है और देश की जनता को शिक्षित तथा जागरूक करना भी मीडिया का काम नही है,तो फिर मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ क्यो कहा जाता है?
क्या पत्रकारो के पास “पारस-मणि” है या उनके सर पर “सुर्क़ाब पक्षी (Chrysolophus pictus) के पर (पंख)” निकले हुये है?
यह मीडिया की ज़िम्मेदारी थी कि वह नक्शा छाप कर विश्लेषण करके जनता को शिक्षित करती कि 2014 मे चीनी सैनिक चौकियो की स्थिति क्या थी?
चीनी सैनिको के गश्त करने वाले क्षेत्र कौन-कौन से थे?
संवेदनशील क्षेत्र मे चीन सेना ने कौन-कौन से अत्याधुनिक हथियार तैनात किये हुये थे?
फ्लैग-मीटिंग और द्विपक्षीय वार्ता मे क्या अंतर होता है?
क्या प्रोटोकॉल के अनुसार तीन सितारे (थ्री-स्टार) वाले सैनिक अधिकारी के सामने तीन-सितारे वाले सैनिक अधिकारी को बात करने (मीटिंग) के लिये बैठना चाहिये या दो-सितारे (टो-स्टार) वाला अधिकारी भी चलेगा?
हम सभी पत्रकार रक्षा तथा विदेश नीति की संवेदनशीलता को समझते है और हम कभी यह नही कहते है कि मीटिंग मे हुई चर्चा को सार्वजनिक किया जाये,किंतु देश की जनता को कुछ (सीमित) संवेदनशील जानकारी देना ज़रूरी होता है,क्योकि आज भूमंडलीकरण के युग मे विदेशी मीडिया भ्रामक समाचार देकर हमारे देश की जनता को गुमराह कर सकती है,जिसे तकनीकी भाषा मे हाइब्रिड वार (Hybrid War) अथवा पांचवी पीढ़ी का युद्ध कहा जाता है।
किंतु यह पेड-मीडिया बड़ी कुटिलता से मुद्दे का राजनीतिकरण करते हुये उसे फासीवादी भाषा मे अनुवाद करके अपनी रोटियां सेकती है,देश की डूबती अर्थव्यवस्था, फ्लॉप विदेश नीति और लचर रक्षा नीति पर चर्चा करने के बजाय मीडिया अहिंसावादी सूफी-संतो को डकैत बनाने मे लगी हुई है,क्योकि एक तरफ तो यह पेड-मीडिया विदेश, रक्षा और आर्थिक स्थिति के बारे मे देश की जनता को गुमराह कर रही है,दूसरी तरफ देश की समग्र संस्कृति अथवा गंगा जमुनी तहज़ीब की हत्या करके जनता को आपस मे भिड़ाकर बनावटी मुद्दो मे उलझाना चाहती है।
अपने व्यापारिक हितो की सुरक्षा के लिये पेड-मीडिया हिटलर की नाज़ीवाद जैसी व्यवस्था की भारत मे स्थापना चाहती है,चूंकि इनके रास्ते का सबसे बड़ा कांटा भारत की गंगा-जमुना तहज़ीब है,इसलिये पेड-मीडिया झूठ बोल-बोल कर भारत मे फासीवाद की जड़े मज़बूत करने की कोशिश कर रही है।
एक सोची-समझी रणनीति के तहत पहले शिरडी के साई-बाबा को निशाना बनाया गया, फिर कबीर दास जी के ऊपर कीचड़ उछाली गई,उसके बाद निशाने पर संत रविदास जी का मंदिर आ गया।
अजमेर के संत ख्वाजा साहब द्वारा पृथ्वीराज चौहान के परिवार का अपमान करने और पृथ्वीराज की बेटी द्वारा ख्वाजा साहब की हत्या करके बदला लेने की झूठी कहानी रची गई,किंतु जब इन षड्यंत्रकारियो को बताया गया कि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के साढ़े-चार दशक के बाद ख्वाजा साहब का स्वर्गवास हुआ था और उन्होने स्वर्गवास से पहले अपनी विरासत हज़रत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी को सौंपते हुये अपनी परलोक यात्रा के बारे मे संकेत दे दिया था,फिर सैकड़ो मुरीदो (शिष्यो) की मौजूदगी मे उन्होने रात भर अपने बंद कमरे मे इबादत करते हुये शरीर त्यागा था,तब षड्यंत्रकारियो ने कुतर्क दिया कि मुसलमानो ने इतिहास को नष्ट कर दिया है।
हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब से घृणा करने वाले षड्यंत्रकारी हमेशा यह इल्ज़ाम लगाते है,कि मुसलमानो और इसाईयो ने वैदिक ग्रंथो मे मिलावट कर दी है अथवा उन्हे अशुद्ध कर दिया है,किंतु यह कुतर्क करने वाले लोग आज़ादी के सात दशक के बाद भी यह नही बताते है,कि कौन सा वैदिक ग्रंथ शुद्ध है और कौन सा वैदिक ग्रंथ अशुद्ध है?
वैदिक ग्रंथो मे सेे जो ग्रंथ शुद्ध और अशुद्ध दोनो अर्थात मिश्रित है,उनका कौन सा भाग शुद्ध और कौन सा भाग अशुद्ध है?
क्या अब समय नही आ गया है कि इस विषय पर निर्णय कर लिया जाये ताकि आने वाली पीढ़ियो को कोई समस्या ना हो और वह असली तथा नकली साहित्य के चक्कर मे ना पड़े?
अगर हम सतर्क नही हुये तो यह षड्यंत्रकारी पद्मावती जैसे काल्पनिक चरित्रो के नाम पर दंगे कराते रहेगे,क्योकि सही इतिहास को खोज पाना और उसका सटीक विश्लेषण करना असंभव है,दूसरे वर्तमान युग की जीवन-शैली की प्राचीन युग से तुलना करना बेईमानी है।
पहले जमाने मे सभी धर्मो के राजा विस्तारवादी नीति अपनाते थे,वेदो मे भी राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ, वाजपेय यज्ञ और विश्वजीत यज्ञ जैसी घटनाओ (परंपराओ) का वर्णन मिलता है,जिसमे अश्वमेध यज्ञ फिल्म और टीवी नाटको के कारण बहुत लोकप्रिय है।
अश्वमेध यज्ञ मे राजा अपना एक घोड़ा दूसरे राजाओ के क्षेत्र मे भेजता था,घोड़ा जिस-जिस क्षेत्र मे जाता था उस क्षेत्र पर घोड़ा भेजने वाला राजा अपना अधिकार जमाता था, अगर वह क्षेत्र दूसरा राजा उसे नही सौपता तो वह उस कमज़ोर राज्य पर आक्रमण करके क्षेत्र को छीनते हुये अपने राज्य की सीमा का विस्तार करता था,लेकिन आज के युग मे इसे गुंडागर्दी और डकैती माना जायेगा।
मुस्लिम इतिहासकार और लेखक धर्मातरित मुसलमानो के पुराने नामो का उल्लेख नही करते है,क्योकि यह धर्मातरित मुसलमान का अपमान समझा जाता था,हालांकि गै़र-मुसलमान मुस्लिम इतिहास को निष्पक्ष नही मानते है,फिर भी दूसरे धर्मो के तुलना मे मुसलमानो का इतिहास लेखन बहुत सटीक और सही होता है।
ख्वाजा साहब की पहली पत्नी महाराजा पृथ्वीराज सिंह चौहान की पुत्री थी और उनसे ख्वाजा साहब के दो पुत्र और पुत्री उत्पन्न हुई,ख्वाजा साहब की पुत्री बीवी जमाल को भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे बड़ी महिला संत माना जाता है जो रिश्ते मे पृथ्वीराज चौहान की नातिन थी,मुस्लिम इतिहासकारो के अनुसार पृथ्वीराज चौहान के बाद उनके पांच बेटे जीवित थे जिसमे से तीन बेटे मुसलमान बन गये और उनके वंशज शताब्दियो तक ख्वाजा साहब की दरगाह की देखभाल करते रहे।
इस्लाम धर्म के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी साली से शादी नही कर सकता,क्योकि रिश्ते मे साली उसकी बहन और सांस उसकी मां होती है,पृथ्वीराज चौहान के कई बेटे और बेटियां हजरत ख्वाजा साहब के परिवार के साथ रहते थे,जिनके मुसलमान वंशज आगे चलकर बड़े-बड़े पदो पर आसीन हुये,यही कारण है कि आज तक कोई मुसलमान पृथ्वीराज चौहान जैसे व्यक्ति के ऊपर कीचड़ नही उछालता है।
राजपूत जैसी शूरवीर जाति डर कर मुसलमान नही बनने वाली थी,बल्कि ख्वाजा साहब के चमत्कारो और प्रेम के कारण लगभग नौ लाख राजपूत मुसलमान बने थे,इसलिये आज 40% से अधिक राजपूत मुसलमान है,इसके अतिरिक्त 35% से अधिक गुर्जर और 33% से अधिक जाट भी मुसलमान है,वर्तमान पाकिस्तान सेना अध्यक्ष जनरल बाजवा जाट है और उससे पहले राहिल शरीफ राजपूत थे।
एक कहानी पहले से प्रचलित थी जिसको काव्य ग्रंथ “पृथ्वीराज रासो” के रचयिता से जोड़ा जाता है,जिसके अनुसार नेत्रहीन पृथ्वीराज चौहान ने अपने कवि के संकेतो की सहायता से तीर चला कर मोहम्मद गौरी की हत्या कर दी थी, जबकि सत्य यह है कि पृथ्वीराज चौहान का देहांत 1192 ईसवीं मे हुआ था और उसके चौदह (14) वर्ष के बाद मोहम्मद गौरी का 1206 ईसवीं मे देहांत हुआ था,यह कहानियां गढ़ने वाले ना तो अपना होमवर्क करते है और ना ही मेरे जैसे किसी प्रोफेशनल से सहायता लेते है।
टोटल लॉकडाउन करके 1172 सेवको के साथ भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली जा सकती है तो क्या 40 लोगो के साथ ईदगाह मे ईद और अलविदा की नमाज़ नही पढ़वाई जा सकती थी?क्या टोटल लॉकडाउन कराकर मोहर्रम का जुलूस निकालने की इजाज़त दी जायेगी?
गांधीवाद, समाजवाद और वामपंथ के नारे लगाने वाले किसी भी हिंदू पत्रकार ने यह मुद्दा क्यो नही उठाया?
जवाब बहुत आसान है कि फासीवाद का चौथा स्तंभ पेड-मीडिया उन्हे निशाने पर लेकर उनका जीवन नर्क बना देती,जब पत्रकार डरने लगे तो लोकतंत्र खतरे मे आ जाता है और जब पत्रकार पक्षपात करने लगे तो फासीवाद का उदय हो जाता है।
किंतु जब पत्रकार फासीवाद का प्रचार करने लगे तब विनाश निश्चित होता है,इसलिये निर्पेक्ष और ईमानदार पत्रकारो का कर्तव्य है कि वह पेड-मीडिया के विरुद्ध संघर्ष करे।
पत्रकारो को अपने कर्तव्य से विमुख नही होना चाहिये, वरना इतिहास मे हम हास्यपात्र बन जायेगे,हमारे पास सिवाय हाथ मलते रहने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नही होगा और होठो पर शब्द होगे;अब पछताए होत क्या? जब चिड़ियां चुग गई खेत!
छुआछूत हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या रही है जिसके कारण महान भारत वर्ष 800 साल तक विदेशी आक्रांताओ का गुलाम रहा और मां भारती के सभी महान सपूतो ने छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष किया है,किंतु दुर्भाग्य से अब दुबारा छुआछूत की संस्कृति पैदा की जा रही है और इस पुरानी शराब को बहिष्कार की पैकिंग मे बेचा जा रहा है,हर साल दीपावली के अवसर पर कुछ राष्ट्रवादी संस्थाएं चीनी सामान के बहिष्कार के लिये जन-जागरण करती थी,परन्तु इस बार दीपावली के अवसर पर सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार किया जा रहा था,कि हे भक्तो मलेच्छो (मुसलमानो) का बहिष्कार करो!
ना अपनी सोसाइटी मे घर दो!
ना प्लाट बेचो!
ना काम (मज़दूरी) दो!
ना नौकरी दो!
ना परीक्षा मे पास करो!
ना कोर्ट मे इनका केस लड़ो!
ना ही पुलिस थाने मे इनकी एफ.आई.आर. दर्ज होने दो!
मुझे लगा आज के दौर मे भारतीय मुसलमान होना एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है,
मै मन ही मन भगवान से लड़ता रहता था कि मुझे किसी पश्चिमी देश मे पैदा क्यो नही किया?
इसी वर्ष मार्च महीने की घटना है कि मै मंडी हाउस गया था और नमाज़ का समय होने के कारण बंगाली मस्जिद मे नमाज़ पढ़कर वापस मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन आ रहा था, तो रास्ते मे फोन कॉल आने की वजह से मै टहल-टहल कर बाते करने लगा, तभी एक राष्ट्रवादी कार्यकर्ता की नज़र मेरे ऊपर पड़ी और फिर दुआ-सलाम हुआ,उन्होने मुझसे कहा कि आप यहां क्या कर रहे है?
यहां से तुरंत निकल जाये वरना आपको भाजपा के ऑफिस मे घुसने नही दिया जायेगा!
मुझे समझ नही आया कि मैने कौन सा अपराध कर दिया?
मैने गुस्से मे कहा; “मुझे किसी राजनीतिक दल से दो-पैसे का फायदा नही है और ना ही मै किसी की चमचागिरी करता हूं, अगर भाजपा वाले कुछ लाभ देते है तो वह वापस ले ले, मुझे नही चाहिये!”।
गुस्सा शांत होने के बाद मैने उनसे पूछा कि मैने क्या अपराध किया था जो आपने मुझे इतने प्रवचन सुना दिये?
तभी मुझे यह पता चला कि मै भाजपा के पूर्व महामंत्री संजय जोशी जी के बैठक वाले स्थान के बाहर टहल रहा था और चाटुकार नेताओ की नज़र मे यह बहुत बड़ा अपराध है,बहिष्कार की आड़ मे बड़ी अजीबो-गरीब संस्कृति पैदा की जा रही है जो समाज को जोड़ने के बजाय सिर्फ तोड़ेगी।
मुसलमानो का बहिष्कार करो!
ईसाई मिशनरी का बहिष्कार करो!
संजय जोशी का बहिष्कार करो!
ईमानदार पत्रकारो का बहिष्कार करो!
चीनी सामान का बहिष्कार करो!
कही ऐसा ना हो यह बहिष्कार की राजनीति उल्टी पड़ जाये और सारी दुनिया कही हम भारतीयो का ही बहिष्कार ना कर दे?
क्योकि नेतृत्व को समझ मे नही आ रहा है कि जाएं तो किधर जाएं?
रशिया जैसे मित्र को छोड़कर अमेरिका का दामन पकडा,जब ऐन मौक़े पर अमरीका ने ठेंगा दिखा दिया,तो अब बड़े साहब रशिया को दण्डवत प्रणाम कर रहे है,हमारे गांव की भाषा मे इसे कहते है “थूक कर चाटना!”
चीन इस वक्त रशिया के हथियार खरीदने वाला सबसे बड़ा ग्राहक है तथा चीन के पास लगभग बारह सौ बिलियन डॉलर के अमेरिकी ऋण-पत्र है,रशिया चीन के साथ मिलकर अमेरिकी डॉलर का रेट गिराकर अमेरिका को आर्थिक रूप से कंगाल करने के लिये षड्यंत्र कर रहा है,इसलिये दोनो देश धीरे-धीरे अमेरिकी डॉलर बेचकर सोना खरीद रहे है और दोनो देश भविष्य मे सोने पर आधारित मुद्रा (कंरेसी) या डिजिटल कंरेसी भी ला सकते है।
हमारे पास लगभग चार सौ बिलियन डालर का संग्रह (रिजर्व) है जबकि चीन के पास इससे आठ गुना अधिक बत्तीस सौ बिलियन डालर का रिजर्व है,अब अगर चीन तीन सौ बिलियन डालर अनुदान मे दे दे तो वह देढ़ सौ (150) ग़रीब देशो को अपने खेमे मे कर लेगा,फिर अमेरिका सिर्फ अपना मुंह ताकता रह जायेगा,इसी रणनीति के तहत चीन अफ्रीका और अमेरिका के ग़रीब इसाई देशो मे भारी निवेश करके उन्हे अपने खेमे (गुट) मे कर रहा है।
रशिया सऊदी अरब के साथ मिलकर तेल (क्रूड आयल) का दाम (रेट) गिराकर अमेरिकी तेल कंपनियो का दिवाला निकाल चुका है,इसके बावजूद भी हमारे बड़े साहब को लगता है कि वह थोड़ा सा बिज़नेस देकर अर्थात कुछ हथियार खरीदकर रशिया को चीन से छीन लेगे,यही विचार चीन के बारे मे भी थे कि हम चीन को बिज़नेस देकर अर्थात उसके आर्थिक हितो की रक्षा करके उसे पाकिस्तान से छीन लेगे।किंतु बड़े साहब यह नही समझ पाये कि भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति मे ज़मीन-आसमान का अंतर होता है,इसलिये जब दो देश आपस मे मिलकर किसी तीसरे देश के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे होते है,तब उन्हे आपस मे लड़ाया नही जा सकता क्योकि वह आपस मे एक-दूसरे के राज़दार होते है।
वास्तव मे बड़े साहब के पास सूचनाओ का अभाव है,क्योकि उनके सबसे बड़े सलाहकार हिमालय पुत्र है और इसी कारण उनको लगता है कि बहुत ऊंचाई पर पैदा होने वाला व्यक्ति बहुत दूर तक देख सकता है, सलाहकार साहब की बड़ी सोच ने बड़े साहब को नोटबंदी करने पर मजबूर किया जिससे अर्थव्यवस्था का दिवाला निकल गया,फिर विदेश नीति भी पूरी तरीके से पिट (असफल) गई।
पाकिस्तान आतंकवादी देश घोषित होने ही वाला था,किंतु सलाहकार साहब की चाणक्य नीति के कारण अब उल्टे पाकिस्तान ही हमारे अफग़ानिस्तान मे कार्य करने वाले चार नागरिको (Venu Madhav Dongara, Ajoy Mistry, Appaji Angara & Gobinda Patnaik Duggivalasa) को आतंकवादी घोषित करवाने मे लगा हुआ है,ऊपर से अधिकतर पड़ोसियो ने नाक मे दम कर रखा है,आज-कल लद्दाख पर बदलते बयानो ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय मे हमारे लोकप्रिय बड़े साहब को हास्य-पात्र बना दिया है।
सलाहकारो ने समझाया कि इज़रायल हमारा सबसे वफादार मित्र हो सकता है,किंतु बड़े साहब विदेश यात्राओ तथा चुनाव प्रचार से इतना थक जाते है,कि उन्हे समय के अभाव मे यहूदियो का इतिहास खंगालने का मौका (अवसर) ही नही मिलता है,वरना उन्हे पता होता कि यह लोग किसी के सगे नही होते है और सिर्फ अपना उल्लू सीधा करते है।
अगर सही समय पर अध्ययन कर लेते तो हमारे साहब अपना ध्यान नेपाल और बांग्लादेश की तरफ लगाते और आज हम भारतीय खुद को अधिक सुरक्षित महसूस कर रहे होते,क्योकि चीन नेपाल को पहले ही हमसे छीन चुका है और अब लगभग पाँच हज़ार से अधिक उत्पादो पर कर-छूट (ड्यूटी-फ्री) देकर बांग्लादेश को भी हमसे छीन रहा है,
लेकिन सबसे ज़्यादा डर इस बात से लगता है,कि कही वह हमारे वीर सूरमा अर्थात गोरखा सैनिको को हमसे दूर ना कर दे?
बड़े साहब तो 18 घंटे कार्य करके राष्ट्र सेवा करते रहे है और आगे भी करते रहेगे,क्योकि उनकी नीयत (वृत) अध्यात्मिक विश्वगुरु भारत को महाशक्ति (सुपर पावर) बनाने की है,किंतु सलाहकार और चाटुकार नेता दोनो अपना उल्लू सीधा करने के लिये साहब को अंधेरे मे रखेगे अर्थात गुमराह करते रहेगे।
यह संघ के मनीषियो का दायित्व था कि वह राष्ट्रहित मे दखल-अंदाजी करते और बड़े साहब को सही मार्ग दिखाते,किंतु राष्ट्र सर्वोपरि का नारा लगाने वाले इन त्यागी महापुरुषो ने “दूध देती गाय की चार लाते भी बर्दाश्त करना पड़ती है” वाली कहावत को अपना लिया,राष्ट्र ऋषियो की इस लापरवाही ने राष्ट्र को एक खतरनाक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है और भारत अभिमन्यु की तरह शत्रुओ के चक्रव्युह मे फस गया है,किंतु चाटुकार नेता, धूर्त व्यापारी और पेड-मीडिया के नट-भांड विजय गाथाएं गा रहे है।
याद रखना चाहिये कि बहिष्कार की राजनीति भूमंडलीकरण के युग मे सफल नही होती है,दूध बनाने वाली कंपनी नेस्ले से लेकर पांचवीं पीढ़ी के जंगी जहाज बनाने वाली लॉकहीड मार्टिन कंपनी के मालिक यहूदी है,यह कंपनिया अपनी आमदनी का 20% हिस्सा इज़रायल को देती है जिससे वह हथियार खरीदकर मुसलमानो के विरुद्ध हिंसा करता है,इसलिये वर्षो से मुसलमान समाजसेवी कैम्पेन (आंदोलन) चला रहे है कि इज़रायल के उत्पादो का बहिष्कार करो, किंतु दुनिया की दो-अरब मुसलमान आबादी एक सॉफ्ट ड्रिंक पीना नही छोड़ती है।
क्या भारत मे बहिष्कार की राजनीति सफल हो पायेगी?
इस प्रश्न का जवाब भविष्य की गर्भ मे छिपा है,किंतु पेड-मीडिया को अगर आईना नही दिखाया गया,तो दुनिया का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश और आध्यात्मिक विश्वगुरु भारत विश्व का सबसे बड़ा फासीवादी देश बन जायेगा,जिसकी ज़िम्मेदार पेड-मीडिया होगी।इसके निशाने पर देश को एक सूत्र मे बांधने वाली समग्र-संस्कृति (गंगा-जमुनी तहज़ीब) है,और अगर भारतवासियो हमने गंगा-जमुनी तहज़ीब को नही बचाया और पेड-मीडिया के चंगुल मे फंस गये,तो हमारी फूट का लाभ देश के दुश्मन उठायेगे और जिसका नुकसान भारत-माता को होगा,क्योकि आपसी फूट की वजह से राष्ट्रीय एकता की जड़े खोखली हो जायेगी।
फिर इतिहास हमे कभी माफ नही करेगा,जिस तरह हम ऐतिहासिक खलनायको को गाली देते है उसी तरह आने वाली पीढ़ी हमे कोसती रहेगी,इसलिये हम माँ-भारती की संताने अपना राष्ट्रधर्म निभाये और समाज को एक सूत्र मे बांधकर राष्ट्र को बलवान बनाये,क्योकि व्यक्ति से बड़ा संगठन, उससे बड़ा विचार और राष्ट्र सर्वोपरि है!